Sunday, December 16, 2012

I LEARN FROM THEE


Tiny mosquito
You come and go
Often, your task is done
Then I come to know.
Oh you!
With your stingy bite,
Break my sleep
And dreams at night.
For daily bread
You struggle and strive
At the risk of
Losing your life.
My single pat
Can crush you to death.
Your single bite
Can shiver my breath.
The tiny you.
The mighty me.
How to challenge
I learn from thee.

Monday, November 5, 2012

Thursday, January 12, 2012

वह भगवान बनाती


प्लेटफोर्म पर थी वो
फिरती इधर-उधर
अपने हाथ फैलाये
भगवान के नाम पर मांगती.
उस भगवान के नाम पर
जिसने उसे बनाया
या फिर उस भगवान के नाम पर
जिसे उसने बनाया !
उसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं
या झुर्रियों में चेहरा !
जो भी हों, थे दोनों.
वरना बिना झुर्रियों के भी चेहरा होता है
तभी तो आइने बिकते हैं दुनिया में.
और बिना चेहरे के भी झुर्रियाँ होती हैं.
नहीं आता यकीन, तो झाँक लो
लोगों के दिलों में,
जहाँ अब चेहरे नहीं मिलते
मिलती हैं सिर्फ झुर्रियाँ.
मुझसे भी माँगा उसने
मैंने भी उसे एक रूपया दिया
और उस क्षण में उसका भगवान बन गया.
वह फिर बढ़ गई
अपने अगले भगवान कि तलाश में
फिरती इधर-उधर
अपने हाथ फैलाये
उसी प्लेटफोर्म पर
लोगों को भगवान बनाती.

Tuesday, January 3, 2012

बीता हुआ क्षण


अनमोल क्षण
तुम फिर बीत गए.
पता ही नहीं चला
तुम आये कब थे!
दस्तक सुनी थी मैंने.
सोचा भी
कि तुम ही होगे.
पलकें बिछा रखी थीं मैंने
तुम्हारी प्रतीक्षा में.
पुरातन कि ऊब छोड़
नूतन की आस थी.
ढेरों योजनाएं थीं
बस, तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी.
दस्तक जरूर सुनी थी मैंने
पर मैं व्यस्त था
योजनाएं बनाने में.
तुम ख़ास जो थे
अनुपम और अपूर्व.
कुछ करते हम दोनों
कुछ विशेष
जो होता तुम जैसा
नया, अनुपम, अपूर्व
और शानदार.
अब मैं तैयार हूँ
करने को वो सब कुछ.
द्वार भी खोल दिए हैं मैंने
तुम्हारे स्वागत में.
लेकिन यह क्या
तुम तो चलते ही चले?
क्या तुम रुक नहीं सकते
कुछ देर, मेरे पास?
तुम्हें नहीं पता
तुम संग बीता हूँ
मैं भी.
और रह गया
सिर्फ मैं.

Sunday, December 18, 2011

अब नहीं


ओझल हों वे स्वप्न ही क्या है
लड़खड़ाए वे कदम ही क्या हैं
नजरें गर खोईं तलाश में
ऐसी भटकी नजर ही क्या है
पग हैं वे जो गिरते पड़ते
चलते रहें, हों भले सिसकते
आशाएं जो विपत घडी में
धडकन की लें डोर संभाले.
होगा कोई और जो अब तब
टूट पराजय को अपना ले
होगा कोई और जो अपने
चिर प्रताप को ना पहचाने
साहस मेरा परम शस्त्र है
अग्नि-शिखा सी अभिलाषा
कैसे लूं स्वीकार पराजय
रग रग में बहती आशा.
शीश नमन है धरा तुम्हे पर
अब ना तुम्हारा वरण करूँगा
प्राण त्याग दूँ भले समर में
मृत्यु पूर्व अब नहीं मरूँगा.

जाने ओझल हुए कहाँ पर..


आँखें खुली हैं और मन भी
खुला खुला है सब कुछ
शायद इसीलिए है लगता
बिखरा बिखरा सब कुछ.
साहस केवल जुटा हुआ है
साहस का आधार नहीं
स्वप्न बिखरते लगते हैं
अंशमात्र साकार नहीं.
नजरें खोईं शून्य गगन में
मेघबिंदु की थाह नहीं
इन्द्रधनुष का सिरा हाथ में
अंतिम का आभास नहीं
पग हैं बढते सहमे-सहमे
मंजिल की पर आस नहीं.
इसी राह में इसी गगन में
इसी नजर में रचे स्वप्न थे
इसी धरा पर इन्हीं पगों में
पुलकित से अरमान भी थे
जाने ओझल हुए कहाँ पर
मेरे निज की पहचान भी थे.

Friday, April 1, 2011

NON ATTACHMENT


This is one of my favourite zen stories:
Kitano Gempo, abbot of Eihei temple, was ninety-two years old when he passed away in the year 1933. He endeavored his whole life not to be attached to anything. As a wandering mendicant when he was twenty he happened to meet a traveler who smoked tobacco. As they walked together down a mountain road, they stopped under a tree to rest. The traveler offered Kitano a smoke, which he accepted, as he was very hungry at the time.
"How pleasant this smoking is," he commented. The other gave him an extra pipe and tobacco and they parted.
Kitano felt: "Such pleasant things may disturb meditation. Before this goes too far, I will stop now." So he threw the smoking outfit away.
When he was twenty-three years old he studied I-King, the profoundest doctrine of the universe. It was winter at the time and he needed some heavy clothes. He wrote his teacher, who lived a hundred miles away, telling him of his need, and gave the letter to a traveler to deliver. Almost the whole winter passed and neither answer nor clothes arrived. So Kitano resorted to the prescience of I-King, which also teaches the art of divination, to determine whether or not his letter had miscarried. He found that this had been the case. A letter afterwards from his teacher made no mention of clothes.
"If I perform such accurate determinative work with I-King, I may neglect my meditation," felt Kitano. So he gave up this marvelous teaching and never resorted to its powers again.
When he was twenty-eight he studied Chinese calligraphy and poetry. He grew so skillful in these arts that his teacher praised him. Kitano mused: "If I don't stop now, I'll be a poet, not a Zen teacher." So he never wrote another poem.