Sunday, December 18, 2011

अब नहीं


ओझल हों वे स्वप्न ही क्या है
लड़खड़ाए वे कदम ही क्या हैं
नजरें गर खोईं तलाश में
ऐसी भटकी नजर ही क्या है
पग हैं वे जो गिरते पड़ते
चलते रहें, हों भले सिसकते
आशाएं जो विपत घडी में
धडकन की लें डोर संभाले.
होगा कोई और जो अब तब
टूट पराजय को अपना ले
होगा कोई और जो अपने
चिर प्रताप को ना पहचाने
साहस मेरा परम शस्त्र है
अग्नि-शिखा सी अभिलाषा
कैसे लूं स्वीकार पराजय
रग रग में बहती आशा.
शीश नमन है धरा तुम्हे पर
अब ना तुम्हारा वरण करूँगा
प्राण त्याग दूँ भले समर में
मृत्यु पूर्व अब नहीं मरूँगा.

जाने ओझल हुए कहाँ पर..


आँखें खुली हैं और मन भी
खुला खुला है सब कुछ
शायद इसीलिए है लगता
बिखरा बिखरा सब कुछ.
साहस केवल जुटा हुआ है
साहस का आधार नहीं
स्वप्न बिखरते लगते हैं
अंशमात्र साकार नहीं.
नजरें खोईं शून्य गगन में
मेघबिंदु की थाह नहीं
इन्द्रधनुष का सिरा हाथ में
अंतिम का आभास नहीं
पग हैं बढते सहमे-सहमे
मंजिल की पर आस नहीं.
इसी राह में इसी गगन में
इसी नजर में रचे स्वप्न थे
इसी धरा पर इन्हीं पगों में
पुलकित से अरमान भी थे
जाने ओझल हुए कहाँ पर
मेरे निज की पहचान भी थे.