Sunday, December 18, 2011

जाने ओझल हुए कहाँ पर..


आँखें खुली हैं और मन भी
खुला खुला है सब कुछ
शायद इसीलिए है लगता
बिखरा बिखरा सब कुछ.
साहस केवल जुटा हुआ है
साहस का आधार नहीं
स्वप्न बिखरते लगते हैं
अंशमात्र साकार नहीं.
नजरें खोईं शून्य गगन में
मेघबिंदु की थाह नहीं
इन्द्रधनुष का सिरा हाथ में
अंतिम का आभास नहीं
पग हैं बढते सहमे-सहमे
मंजिल की पर आस नहीं.
इसी राह में इसी गगन में
इसी नजर में रचे स्वप्न थे
इसी धरा पर इन्हीं पगों में
पुलकित से अरमान भी थे
जाने ओझल हुए कहाँ पर
मेरे निज की पहचान भी थे.

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