Wednesday, December 15, 2010

टिनटिन

कल एक एक्वेरियम के सामने से गुजरते हुए दिमाग में ख़याल आया कि क्यों न मैं भी अपने घर में एक छोटा सा एक्वेरियम रखूँ, एक छोटी सी - सुन्दर सी मछली पालूँ. मुझमे उत्साह भर आया. मैंने लगभग यह निर्णय कर लिया. और तो और मैंने अपनी सखा – सुन्दर छोटी मछली का नाम भी तय कर लिया – टिनटिन.
नाम देने में मैं बड़ा आगे रहता हूँ. इससे पहले जब मैं भोपाल में रहता था तो वहाँ मैंने एक गुलाब का पौधा रखा था – तानी. कितना सुखद लगता है कि हम किसी को नाम दें, और वो उस नाम से जाना जाये. लेकिन इस एकांगी नामकरण कि प्रक्रिया के गहरे मनोविज्ञान में यदि जाया जाये तो हम पाएंगे कि यह सिर्फ अपने आत्माभिमान को तुष्ट करने का एक और तरीका है और इसके अलावा कुछ भी नहीं. आखिर क्यों हम किसी को अपने दिए गए नाम से बाँधे? क्या हम उसे ऐसे ही बिना किसी बंधन या पूर्व शर्त के स्वीकार नहीं कर सकते?
खैर, बावजूद इस सब वैचारिक कशमकश के मैंने उसका नाम टिनटिन रखना लगभग तय कर लिया. इस उद्देश्य से बाद में जब मैं उस दुकान में पहुँचा तो मछलियों की दुनिया के बारे में तथा उनके लालन-पालन से जुड़े विभिन्न पक्षों की जानकारी हुई. पता चला कि जिस आकार की मछली मैंने सोच रखी थी, लगभग डेढ़-दो इंच की, उसे एक छोटे से जार में पालने के लिए हर दो दिन बाद उसका पानी बदलना पड़ेगा. उस दुकानदार ने कुछ उससे भी छोटी मछलियाँ दिखाई जिनकी व्यवस्था उस छोटे जार में आसानी से हो सकती थी, साथ ही पानी भी चार-पांच दिनों में बदलने की आजादी थी. मुझे यह ठीक लगा. उसने कहा यह छोटी मछलियाँ एक की बजाय चार ले जाइये. अब गया मैं तो एक ही मछली की योजना के साथ था. पर फिर सोचा कि इतनी छोटी-छोटी तो मछलियाँ हैं, चार भी रखी तो कोई समस्या नहीं होगी, और फिर इनको भी साथ मिल जायेगा. अतः मैंने तय किया कि छोटी वाली ही चार मछलियाँ रखूँगा.
अब लेकिन एक नई दुविधा उत्पन्न हो गई. एक मछली के लिए नाम तो मैंने सोच रखा था, पर चारों के लिए नाम अब नए सिरे से सोचने पड़ेंगे. मैंने नाम सोचने शुरू किये तो फिर यह काम मुश्किल लगने लग गया, टिनटिन जैसा प्यारा और चुलबुला नाम दूसरा सूझ नहीं रहा था. फिर दिमाग में अचानक ख्याल आया की चार मछलियाँ तो हैं, क्यों न मैं इनका नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रख दूँ? अच्छा विचार था, रोचक और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रासंगिक भी. लेकिन वे छोटी मछलियाँ दिखने में बिलकुल एक जैसी थीं, एक जैसा रंग एक जैसा रूप. सोचा कि ये नाम रखकर उनमें अंतर करने में आसानी होगी; कुछ वैसा ही जैसा हमारी आरंभिक सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के प्रतिपादक, हमारे पूर्वजों ने किया था. लेकिन फिर एक भयंकर समस्या आन पड़ी - मैं ये नाम तो रख दूँगा इनका, परन्तु इन नादान मछलियों में हम मनुष्यों के जैसा अति-उत्तम मष्तिष्क तो है नहीं जो वे इतनी चतुर व्यवस्था का निर्वाह कर सके. न इनको अपने-पराये का भेद ही पता है. एक दूसरे के सापेक्ष अपनी विशिष्टता और श्रेष्ठता का महत्व भी ये नहीं समझ सकती थीं. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम रखे जाने पर भी ये मछलियाँ आपस में घुलना-मिलना, साथ रहना, खेलना, खाना-पीना आदि जारी रखेंगी. उफ्फ़! तब तो सारी सामाजिक व्यवस्था का सत्यानाश हो जायेगा. और यह किसी प्रलय से कम नहीं होगा. सामाजिक व्यवस्था के पैरोकारों के लिए तो इससे बड़ी दुर्घटना कुछ हो ही नहीं सकती.
इन सब अनिष्टों की आशंका से तौबा करते हुए मैंने इन चारों नामों से दूर ही रहने का निर्णय लिया. फिर कुछ सोच-विचार के बाद मैंने अंततः इनके लिए नाम सोच ही लिए: चेरी, डवी, चुनमुन और टिनटिन.


1 comment:

  1. Fundoo write-up. This is how we’ve divided mankind.
    Though everyone is same, still someone decided to create differences. May be they couldn’t think of something as good as चेरी, डवी, चुनमुन और टिनटिन.

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